
न्यायालय भी मान रहे हैं न्यायिक सुधार की आवश्यकता
एडवोकेट शरफ़ुद्दीन अहमद
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
हिंदुस्तान के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एन. वी. रमना ने हाल ही में कहा था कि देश में आपराधिक न्याय की प्रक्रिया स्वयं में एक सज़ा बन गई है। यह टिप्पणी हिंदुस्तान की न्यायिक व्यवस्था में गहरे बैठे उन समस्याओं की ओर इशारा करती है, जो इसे पंगु बना देती हैं। यह इस बात की गंभीर याद दिलाती है कि हिंदुस्तानी विधिक और न्यायिक प्रणाली में व्यापक सुधारों की तत्काल आवश्यकता है, क्योंकि यह आम नागरिकों के लिए न तो पर्याप्त है और न ही सुलभ।
न्यायपालिका की चिंता का एक और उदाहरण सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एम. एम. सुंद्रेश की हाल की टिप्पणी है। उन्होंने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि किस तरह से आपराधिक मानहानि की कार्यवाही का बढ़ता हुआ दुरुपयोग किया जा रहा है। वास्तव में किसी की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचने का मुद्दा नागरिक (सिविल) विवाद का मामला है, और इसे किसी भी परिस्थिति में आपराधिक अपराध के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। किंतु देश में निचली अदालतों, उच्च न्यायालयों और यहाँ तक कि सर्वोच्च न्यायालय में भी बड़ी संख्या में ऐसे आपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए हैं, जिसके कारण न्यायमूर्ति को अपनी असहजता सार्वजनिक रूप से व्यक्त करनी पड़ी।
परंतु यह याद रखना होगा कि यही सर्वोच्च न्यायालय था जिसने ऐसे निरंकुश दुरुपयोग के रास्ते खोले। 2016 में सुब्रमण्यम स्वामी बनाम हिंदुस्तान सरकार मामले में दिए गए निर्णय ने आपराधिक मानहानि की संवैधानिकता को यह कहकर बरकरार रखा कि किसी की बेदाग़ प्रतिष्ठा का अधिकार ‘जीवन के अधिकार’ का हिस्सा है। तब से ऐसे आपराधिक मामले हिंदुस्तानी अदालतों में स्वीकार किए जाने लगे और अधिकांश न्यायाधीश बिना यह विचार किए कि आरोप प्रथम दृष्टया आपराधिक अपराध ठहराए जा सकते हैं या नहीं, सीधे सम्मन जारी कर देते थे। ऐसे तुच्छ मुकदमों के प्रमुख निशाने पर प्रायः वरिष्ठ राजनेता, स्वतंत्र अख़बार और मीडिया संगठन, संपादक व पत्रकार, बड़े सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर स्पष्ट रुख अपनाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता, टिप्पणीकार और अन्य प्रबुद्ध व्यक्ति रहे हैं। इन मामलों को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इनके पीछे हिंदुस्तान की दक्षिणपंथी व फासीवादी ताक़तें ही हैं, जिनका उद्देश्य आलोचकों को परेशान करना और चुप कराना है। इसके लिए देश के विभिन्न हिस्सों में एक ही कथित अपराध पर लगातार आपराधिक मुकदमे दायर किए जाते हैं।
ऐसे आपराधिक मुकदमों को दक्षिणपंथी प्रचार के औज़ार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। अक्सर बयानों को संदर्भ से काटकर, तोड़-मरोड़कर, धार्मिक, जातीय या सामुदायिक भावनाओं को आहत बताकर बड़े पैमाने पर बदनाम करने और डराने का अभियान छेड़ दिया जाता है। हाल ही में एक फ़िल्म में केवल ‘जानकी’ नाम के इस्तेमाल को भी हिंदू भावनाओं का अपमान बता कर विवाद खड़ा किया गया, क्योंकि यह नाम भगवान राम की पत्नी का नाम है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल जैसे वरिष्ठ राजनेता ऐसे आपराधिक मामलों का सामना कर चुके हैं। मुस्लिम समुदाय से जुड़े कई सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और पत्रकार भी इन मुकदमों के शिकार बने हैं।
अब न्यायिक व्यवस्था का यह व्यापक दुरुपयोग स्वयं हिंदुस्तानी न्यायपालिका के लिए शर्मिंदगी का कारण बन रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि स्वयं सर्वोच्च न्यायालय भी यह समझने लगा है कि उसका 2016 का फ़ैसला ही ऐसे दुरुपयोग का एक बड़ा कारण बना, जिसने समस्या को सुलझाने के बजाय और गहरा कर दिया। निस्संदेह प्रतिष्ठा का सवाल अत्यंत गंभीर है, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाया गया उपाय स्वयं अपराध से भी अधिक कठोर सिद्ध हो रहा है। अतः जितनी जल्दी इस समस्या का समाधान हो, उतना ही देश और न्यायपालिका के लिए बेहतर होगा।
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