केन्द्र लद्दाख की जनता की पीड़ा और मांगों पर गंभीर ध्यान दे
पी. अब्दुल मजीद फैज़ी
राष्ट्रीय महासचिव

केन्द्रीय सरकार और लद्दाख प्रशासन, लद्दाख में लोगों के लम्बे समय से लंबित मांगों को लेकर चल रहे जनआंदोलन के प्रति अत्यंत उकसाऊ रवैया अपना रहे हैं। जलवायु कार्यकर्ता सोनम वांगचुक की राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए) के तहत गिरफ्तारी, जिसके कारण उन्हें कम से कम एक वर्ष तक बिना ज़मानत जेल में रखा जा सकता है, इसका ताज़ा उदाहरण है।

इस शिक्षा सुधारक और क्षेत्रीय आदिवासी अधिकारों के अभियानकर्ता की गिरफ्तारी और बदनाम करने की कोशिशें निश्चित रूप से इस संवेदनशील सीमावर्ती क्षेत्र की स्थिति को और बिगाड़ेंगी। यह इलाका हिन्दुस्तान को पाकिस्तान और चीन से जोड़ता है। यहां के लोग लंबे समय से संविधान की छठी अनुसूची में लद्दाख को शामिल कर आदिवासी दर्जा देने, कारगिल और लेह को मिलाकर पृथक लद्दाख राज्य बनाने, दोनों क्षेत्रों के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटें प्रदान करने और सरकारी सेवाओं में रिक्त पदों को भरने की मांग को लेकर संघर्षरत हैं।

इस सीमावर्ती क्षेत्र में अशांति दरअसल 5 अगस्त 2019 के बाद शुरू हुई, जब संविधान का अनुच्छेद 370 रद्द कर दिया गया, जो जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देता था, और जम्मू-कश्मीर व लद्दाख को दो केन्द्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया गया। विशेष दर्जे की समाप्ति का अर्थ था बाहरी लोगों और आर्थिक शक्तियों के आगमन का खतरा, जिससे उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिरता और पारंपरिक जीवन शैली को नुकसान पहुंच सकता था। लेह की बौद्ध बहुल आबादी और कारगिल की मुस्लिम बहुल आबादी दोनों इस चिंता पर एकमत थीं और उनकी संबंधित संस्थाओं—लेह एपेक्स बॉडी (LAB) और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA)—ने इस आंदोलन में हाथ मिलाया। आंदोलनकारियों और केन्द्रीय सरकार के बीच कई दौर की बातचीत भी हुई और कुछ मांगों पर प्रगति भी हुई। उदाहरणस्वरूप, हाल ही में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने लद्दाख केन्द्र शासित प्रदेश के लिए चार विनियम अधिसूचित किए, जिनमें आरक्षण अधिकार, स्थानीय भाषाओं की सुरक्षा, क्षेत्र में निवास का अधिकार और हिल काउंसिल्स की संरचना पर नई नीतियाँ शामिल थीं। इसके परिणामस्वरूप, स्थानीय लद्दाखियों को सरकारी नौकरियों में 85 प्रतिशत आरक्षण दिया गया, जो पहले 45 प्रतिशत था।

लेकिन कुछ अहम मांगें—जैसे लद्दाख को राज्य का दर्जा देना और संविधान की छठी अनुसूची के तहत आदिवासी दर्जा—अब भी अधूरी रहीं। इन्हीं परिस्थितियों में पर्यावरण कार्यकर्ता और 15 अन्य साथियों ने 35 दिन का अनशन शुरू किया, जिसमें गृहमंत्रालय से तत्काल वार्ता कर लंबित मांगों पर निर्णय लेने की अपील की गई। इन्हीं घटनाक्रमों के बीच अचानक हिंसा की घटनाएं भड़क उठीं, जिनमें चार लोगों की मौत हो गई और 150 से अधिक लोग, जिनमें कुछ सुरक्षा कर्मी भी शामिल थे, घायल हो गए।

यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी, लेकिन इसके लिए जिम्मेदार अधिकारी हैं। इस क्षेत्र के युवा बेहद बेचैन हैं, बड़ी संख्या में वे बेरोज़गार भी हैं। उन्हें चिंता थी कि उचित सुरक्षा उपायों के बिना उनकी ज़मीनें छीनी जा सकती हैं, उनकी भाषाएं और संस्कृति नष्ट हो सकती हैं और उनका भविष्य संकट में पड़ सकता है। यह केन्द्रीय सरकार की जिम्मेदारी थी कि वह लगातार और सार्थक वार्ता के माध्यम से उन्हें आश्वस्त करे, लेकिन बातचीत कुछ समय से ठप पड़ी थी। सरकार को यह भी ध्यान देना चाहिए था कि नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में युवाओं द्वारा चलाए गए आंदोलन, जिन्हें ‘जनरेशन-ज़ेड’ कहा जाता है, ने किस तरह तबाही मचाई और उन सरकारों को सत्ता से बाहर कर दिया जिन्हें जनता की भावनाओं और न्याय की मांगों के प्रति उदासीन माना गया। ऐसे में यह अंदेशा पहले से ही था कि आंदोलन हिंसक रूप ले सकता है और स्थिति को शांत करने के लिए जरूरी कदम उठाए जाने चाहिए थे।

सरकार ने न तो हिंसा और जनहानि को रोकने के लिए कुछ किया और न ही अब घटनाओं के बाद उसे एक वास्तविक जनाक्रोश और चिंता के रूप में लेने की बजाय मात्र कानून-व्यवस्था की समस्या मान रही है। यह लोगों की भावनाओं को संवेदनशीलता और सावधानी से संभालने का विषय है। वर्तमान में आंदोलनकारियों को बिना ठोस सबूत देशविरोधी करार देने जैसी मुहिम हालात को और खराब ही करेगी। गृहमंत्रालय को ऐसी खतरनाक मुहिमों को रोकना चाहिए और इसके बजाय लद्दाख की जनता की शिकायतों का स्थायी समाधान निकालने के लिए वार्ता दोबारा शुरू करनी चाहिए।