
पर्यावरणीय स्वीकृतियों का मापदंड पैसा नहीं हो सकता
इस सप्ताह सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला, जिसमें विभिन्न परियोजनाओं को, यहां तक कि पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील क्षेत्रों में भी, निर्माण पूरा होने के बाद पोस्ट फैक्टो पर्यावरणीय स्वीकृति देने की अनुमति दी गई है, गंभीर सवाल खड़े करता है।
सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ इस मुद्दे पर विभाजित रही और उसने मई दो हजार पच्चीस में आए उस आदेश को वापस ले लिया, जिसमें केंद्र की पर्यावरणीय प्राधिकरणों को निर्माण पूरा होने के बाद स्वीकृति देने से रोका गया था। यह आदेश दो न्यायाधीशों की पीठ ने दिया था, और अब तीन सदस्यीय पीठ ने उसे वापस ले लिया है, हालांकि वर्तमान पीठ के केवल दो न्यायाधीशों ने इस निर्णय का समर्थन किया। इससे संकेत मिलता है कि आने वाले दिनों में यह मामला सुप्रीम कोर्ट की बड़ी पीठ के सामने फिर आ सकता है।
लेकिन जिस आधार पर सुप्रीम कोर्ट के बहुमत ने यह निर्णय दिया है, वही सबसे अधिक चिंताजनक है। कोर्ट का मुख्य तर्क यह रहा कि यदि सोलह मई के उस आदेश, जो पोस्ट फैक्टो स्वीकृतियों को पूरी तरह निषिद्ध करता है, को लागू रहने दिया जाए तो इसका विनाशकारी प्रभाव होगा और हजारों करोड़ रुपये बर्बाद हो जाएंगे। मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई ने अपने बहुमत वाले आदेश में कहा कि यदि पिछली तारीख से दी गई स्वीकृतियों को रद्द किया गया तो कई करोड़ रुपये के सरकारी और निजी निवेश वाले प्रोजेक्टों को गिराना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि लगभग बीस हजार करोड़ रुपये की परियोजनाएं, केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा संचालित, गिरानी पड़ेंगी। निजी क्षेत्र में तो इससे भी बड़े निवेश पर्यावरणीय नियमों का उल्लंघन कर किए गए हैं। इसलिए बहुमत का मत है कि कठोर जुर्माना वसूल कर इन परियोजनाओं को चलने दिया जा सकता है।
लेकिन पर्यावरणीय सुरक्षा का थोड़ा भी ज्ञान रखने वाला व्यक्ति बताएगा कि पर्यावरणीय स्वीकृतियों का आधार केवल आर्थिक नुकसान या लाभ नहीं हो सकता। इन्हें कई मापदंडों पर आंका जाना चाहिए, जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में पर्यावरण को होने वाला संभावित नुकसान, स्थानीय समुदायों, विशेषकर आदिवासियों, की आजीविका पर पड़ने वाला प्रभाव, प्राकृतिक संसाधनों के नष्ट होने से होने वाले दीर्घकालिक परिणाम, और हमारी पारिस्थितिक स्थिरता पर पड़ने वाले व्यापक प्रभाव।
अपने निर्णय का बचाव करते हुए मुख्य न्यायाधीश ने पूछा कि क्या जनता के हित में यह उचित होगा कि इन सभी परियोजनाओं को ध्वस्त कर दिया जाए और वर्षों की निवेशित पूंजी को कूड़ेदान में फेंक दिया जाए। उनके अनुसार यह कदम प्रतिकूल होगा, क्योंकि देश की तेज आर्थिक प्रगति और अधिक रोजगार सृजन की आवश्यकता एक व्यावहारिक दृष्टिकोण की मांग करती है।
लेकिन पर्यावरणीय स्वीकृतियों के मामलों में हमें और अधिक संवेदनशील और जिम्मेदार नीति की आवश्यकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा समर्थन पा रही यह व्यावहारिकता अंततः हमारे पर्यावरण और लोगों की आजीविका, दोनों पर कहीं अधिक महंगी साबित हो सकती है। देश में हमारे पास इसके विनाशकारी अनुभवों के असंख्य उदाहरण हैं, जहां विकास परियोजनाओं से विस्थापित लाखों लोग शहरों की झुग्गियों में शरण लेने को मजबूर हुए और विकास शरणार्थी बन गए। इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा बोझ हमेशा गरीब समुदायों, मुस्लिम बस्तियों में रहने वालों, दलितों और आदिवासियों पर पड़ता है, क्योंकि उनकी राजनीतिक ताकत सीमित है और वे समाज के हाशिये पर रहते हैं। यही कारण है कि कई बार लोग अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए कठोर कदम उठाते हैं, जिससे राज्य की हिंसा और दमन का नया चक्र शुरू हो जाता है।
इसलिए विकास के नाम पर नियमों के उल्लंघन को वैध बनाने की कोई भी जल्दबाजी हमें अंतहीन पीड़ा, विस्थापन, हिंसा और दमन की ओर धकेल देगी। ऐसी कोशिशों को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता।
एडवोकेट शरफुद्दीन अहमद
राष्ट्रीय उपाध्यक्ष
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