वंदे मातरम’ को नरेंद्र मोदी ने बनाया नस्लभेदी प्रचार का औज़ार

जब बिहार में मतदाता मतदान केंद्रों की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ बीजेपी–जेडीयू के बीस वर्षीय शासन का अंत जनता करने वाली है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक और बार साम्प्रदायिक प्रचार का सहारा लिया है — इस बार ‘वंदे मातरम’ गीत का राजनीतिक दुरुपयोग करके।

मोदी ने बंगाली लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की पुस्तक आनंदमठ में शामिल गीत वंदे मातरम की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर यह विवाद उठाया, आरोप लगाते हुए कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1936 में जब इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया था, तब गीत के कुछ पद हटा दिए थे। उन्होंने कहा कि देश की युवा पीढ़ी को यह इतिहास समझना चाहिए क्योंकि “ऐसी ही विभाजनकारी सोच आज भी देश के लिए चुनौती बनी हुई है।”

मोदी के इस बयान के पीछे दो मकसद हैं। पहला, तत्काल राजनीतिक लाभ के लिए कांग्रेस पार्टी को बदनाम करना, और दूसरा, मुसलमान समुदाय को राष्ट्रविरोधी बताकर उन्हें निशाना बनाना — क्योंकि अतीत में हिंदू दक्षिणपंथी प्रचार द्वारा इस गीत को लेकर मुसलमानों के विरोध को उन्होंने अवसर बना लिया था। बिहार चुनाव के इस दौर में वे साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण द्वारा बहुसंख्यक मतों को एकजुट करने का प्रयास कर रहे हैं।
यह राजनीति का वही जाना–पहचाना तरीका है जिसे हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथ, विशेषकर नरेंद्र मोदी–अमित शाह की जोड़ी, पिछले पच्चीस वर्षों से अपनाती आई है। दोनों नेताओं ने भारतीय मुसलमानों को “दुश्मन दूसरा” के रूप में पेश करके सत्ता हासिल की है, और जब भी उन्हें राजनीतिक झटका लगने का भय हुआ है, उन्होंने यही विभाजनकारी रास्ता फिर से अपनाया है।

बिहार चुनावों के बीच इस तरह की साम्प्रदायिक उत्तेजना फैलाने से यह स्पष्ट होता है कि केंद्र की बीजेपी नेतृत्व और उसकी अधीन खुफिया एजेंसियों को बीजेपी–जेडीयू गठबंधन की निश्चित हार का डर सता रहा है। इसी वजह से वे हड़बड़ी में साम्प्रदायिक भावनाओं को भड़काने में लगे हैं।

लेकिन इस बार मोदी खुद अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। यह कहना कि लखनऊ अधिवेशन में अध्यक्ष रहे जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने गीत के कुछ पद हटाए, पूरी तरह गलत है। सच्चाई यह है कि खुद कवि रवींद्रनाथ टैगोर ने ही सुझाव दिया था कि कविता के केवल पहले दो पदों को राष्ट्रीय गीत के रूप में स्वीकार किया जाए। इन्हीं की अनुशंसा पर अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया था।

दूसरी बात यह याद रखने की है कि उस समय एआईसीसी आज जैसी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी। यह संगठन पूरे हिंदुस्तान के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहा था, जिसमें रूढ़िवादी हिंदू दक्षिणपंथी नेता भी शामिल थे और समाजवादी–कम्युनिस्ट वामपंथी भी। इसलिए आज मोदी जब कांग्रेस पर यह आरोप लगा रहे हैं, तो वे न सिर्फ टैगोर बल्कि उस समय के सभी हिंदू दक्षिणपंथी नेताओं को भी दोषी ठहरा रहे हैं जो उस आंदोलन का हिस्सा थे।

मोदी को यह सवाल खुद से भी पूछना चाहिए कि उनकी अपनी संस्था, आरएसएस, ने अपने पूरे सौ वर्षों के इतिहास में वंदे मातरम या जन गण मन जैसे राष्ट्रगीत कभी क्यों नहीं गाए? उनके लिए केवल गणगीत ही पवित्र रहा है, जो राष्ट्र की नहीं बल्कि उनके संगठन की स्तुति करता है। इसलिए आज की युवा पीढ़ी के लिए असली प्रश्न यह है कि आरएसएस ने हिंदुस्तान के राष्ट्रीय गीतों को क्यों नहीं अपनाया — और उनका हिंदुस्तान का दृष्टिकोण आखिर है क्या?

मोहम्मद इलियास तुम्बे
राष्ट्रीय महासचिव
सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया