
गवर्नर जनरल की तरह व्यवहार करने की इजाज़त गवर्नरों को नहीं दी जा सकती
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संदर्भ पर राज्यों में राज्यपालों के अधिकारों की सीमाओं के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला चिंताजनक है। यह ऐसा प्रतीत होता है मानो राज्यों की निर्वाचित विधानसभाओं और उनकी चुनी हुई सरकारों को हमारे संवैधानिक ढांचे में दोयम दर्जे का माना जा रहा हो।सुप्रीम कोर्ट ने यह राय दी है कि राज्यपालों और राष्ट्रपति को यह अधिकार होना चाहिए कि वे विधानसभाओं या संसद द्वारा भेजे गए विधेयकों पर निर्णय लेने में अपनी सुविधानुसार समय ले सकें। यह आदर्श संवैधानिक व्यवस्था है और इस पर आपत्ति नहीं की जा सकती।लेकिन अदालतों के सामने मौजूदा विवाद इसलिए आया क्योंकि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें थीं, वहां राज्यपालों ने स्वयं को अति संवैधानिक प्राधिकारी की तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया था।
उनका आचरण औपनिवेशिक दौर के गवर्नर जनरल जैसा हो गया था, जो स्वयं को जनता के प्रति नहीं बल्कि अपने औपनिवेशिक आकाओं के प्रति जवाबदेह मानते थे। उसी तरह, केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त कुछ राज्यपालों ने स्वयं को केवल केंद्र सरकार के प्रति जवाबदेह समझा, न कि राज्य की विधानसभाओं या राज्य सरकारों के प्रति, जिनकी सेवा के लिए उन्हें नियुक्त किया गया था।तमिलनाडु, बंगाल, केरल और दिल्ली ऐसे कुछ प्रमुख राज्य थे, जिनकी सरकारों के साथ राज्यपालों या केंद्र प्रशासकों ने विशेष रूप से दुर्व्यवहार किया।
जब आंतरिक बातचीत के माध्यम से समाधान की सारी कोशिशें विफल हो गईं, तब इन सरकारों को सार्वजनिक मंचों पर आवाज उठानी पड़ी। इन राज्यों में राज्यपालों की हर कोशिश इस दिशा में थी कि वे चुनी हुई सरकारों के कामकाज में बाधाएं खड़ी करें, जिससे वे अपने जनादेश के अनुसार जनता की सेवा न कर सकें।यह स्थिति राज्य शासन में द्वैध सत्ता की थी, जो संविधान में न तो कल्पित थी और न ही स्वीकार्य। संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि राज्यपाल राज्य मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर काम करेंगे।लेकिन कुछ राज्यपालों ने इस संवैधानिक व्यवस्था को जानबूझकर कमजोर किया। केरल में आरिफ मोहम्मद खान, तमिलनाडु में आर एन रवि, पश्चिम बंगाल में जगदीप धनखड़ और कुछ अन्य राज्यपालों ने सभी सीमाएं लांघ दी थीं।
वास्तव में, इनमें से कम से कम दो को केंद्र सरकार को उस राज्य से हटाकर कहीं और भेजना पड़ा, ताकि शांति और स्थिरता बहाल हो सके।तमिलनाडु और केरल सरकारों ने लंबित विधेयकों पर निर्णय लेने में अत्यधिक देरी को लेकर मामला सुप्रीम कोर्ट में उठाया, जहां उन्हें राहत भी मिली। सुप्रीम कोर्ट ने गवर्नरों पर सख्त समय सीमा लागू की। तमिलनाडु के मामले में कुछ विधेयकों को कानून के रूप में अधिसूचित करने की अनुमति भी इसी बेहिसाब देरी और उसके अस्पष्टीकृत बने रहने के आधार पर मिली।अब सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से स्थिति को फिर पीछे ले जाया है।
हालांकि उसने अत्यधिक और अनुचित देरी होने पर न्यायिक हस्तक्षेप की सीमित गुंजाइश छोड़ी है।आदर्श स्थिति तो यही है कि सभी दल नियमों के अनुसार चलें। लेकिन यदि एक पक्ष लगातार हमारे संवैधानिक ढांचे के नियमों को तोड़ता रहेगा, तो विपक्ष शासित राज्यों में शासन पूरी तरह से टूट जाएगा। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने अत्यधिक सतर्कता बरतते हुए, एक बार फिर राज्यपालों और वास्तव में उन पर नियंत्रण रखने वाली केंद्र सरकार को अनावश्यक शक्तियां दे दी हैं।मोहम्मद शफीराष्ट्रीय उपाध्यक्ष
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