इंडिया को ईरान पर हमलों की निंदा करनी चाहिए

13 जून, शुक्रवार से इज़राइल द्वारा इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान पर किए गए अकारण हमले पूरी तरह अंतरराष्ट्रीय संधियों और कानूनों का उल्लंघन हैं। यह हमला न केवल अनुचित है बल्कि इससे पश्चिम एशिया में तनाव और अस्थिरता भी बढ़ रही है।

यह बात स्पष्ट है कि ईरान ने इज़राइल के खिलाफ कोई उकसावे वाली कार्रवाई नहीं की थी, जबकि खुद इज़राइल लंबे समय से गाज़ा, यमन और सीरिया जैसे पड़ोसी देशों पर बेरहमी से हमले करता रहा है और उनकी जमीनों पर कब्जा जमाता रहा है, जिन पर उसका कोई अधिकार नहीं बनता। इज़राइल को दशकों से पश्चिम एशिया का ‘बदमाश’ माना जाता रहा है, जो लगातार अपने पड़ोसियों पर हमले करता आया है।

संयुक्त राष्ट्र जैसी वैश्विक संस्थाएं बार-बार इज़राइली आक्रामकता की निंदा करती रही हैं। यहां तक कि हाल ही में हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय (ICC) ने गाज़ा में नरसंहार के लिए इज़राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और अन्य शीर्ष अधिकारियों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट भी जारी किए हैं।

इज़राइल को यह छूट केवल अमेरिका के समर्थन के कारण मिलती रही है, जो दुनिया की असली साम्राज्यवादी ताकत के रूप में काम करता है। अमेरिका ने हमेशा इज़राइल के युद्ध अपराधों को नजरअंदाज किया है, यहां तक कि जब वह खुद ईरान के साथ परमाणु कार्यक्रम पर बातचीत की कोशिश कर रहा था, तब भी इज़राइल ने ईरान पर अचानक हमला कर दिया।

अमेरिका और इज़राइल का दावा है कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम इज़राइल की सुरक्षा के लिए खतरा है, जबकि सच्चाई यह है कि खुद इज़राइल के पास सैकड़ों परमाणु हथियार हैं। ईरान हमेशा यह कहता रहा है कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए है।

2015 में अमेरिका और पश्चिमी देशों ने ईरान के साथ एक ऐतिहासिक समझौता किया था, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि ईरान कभी परमाणु बम नहीं बनाएगा और उसके सभी परमाणु केंद्रों की अंतरराष्ट्रीय निगरानी होगी। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) ने पुष्टि की थी कि ईरान इस समझौते का पूरी तरह पालन कर रहा है।

लेकिन 2016 में सत्ता में आने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने 2018 में इस समझौते से अमेरिका को एकतरफा बाहर निकाल लिया, सिर्फ इसलिए कि वह ओबामा सरकार की किसी भी उपलब्धि को मान्यता नहीं देना चाहता था। इसके बाद अमेरिका और उसके सहयोगियों ने ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए, जिससे उसकी तेल बिक्री और अन्य व्यापारिक गतिविधियां ठप हो गईं। यह एक सोची-समझी साजिश थी ईरान को आर्थिक, सैन्य और राजनीतिक रूप से कमजोर करने की।

लेकिन ईरानी जनता ने साम्राज्यवाद और ज़िओनिस्म के आगे झुकने से इनकार कर दिया। तमाम साजिशों और षड्यंत्रों के बावजूद ईरान अपने आत्म-सम्मान और क्रांति के मूल्यों पर अडिग रहा।

इन्हीं हालात में नेतन्याहू ने खतरनाक और गैर-जिम्मेदाराना सैन्य कार्रवाई शुरू की, जिसका जवाब ईरान ने बेहद सख्ती से दिया। ईरान ने कई बैलिस्टिक मिसाइलें दागीं, जिससे तेल अवीव और हैफ़ा जैसे इज़राइली शहरों में तबाही मची। शांतिप्रिय ईरान को युद्ध में घसीटने की कोशिश अब खुद इज़राइल के लिए विनाशकारी साबित हो रही है।

अब जब नेतन्याहू और अमेरिका को अपनी नाकामी का अहसास हो रहा है, तो उन्होंने ईरान में ‘रेजीम चेंज’ यानी सत्ता परिवर्तन की बात छेड़ी है और यहां तक कि ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला अली खामेनेई की हत्या की धमकी दी है। यह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति का सबसे गैर-जिम्मेदाराना और खतरनाक बयान है। यह फैसला सिर्फ ईरानी जनता का अधिकार है कि वे किसे अपना नेता चुनें।

इतिहास गवाह है कि तानाशाही और फासीवादी सोच कभी नहीं टिकती। हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह भी अंततः इतिहास के कूड़ेदान में चले गए। नेतन्याहू और ट्रंप को इतिहास से सीख लेनी चाहिए—दमन और आतंक की नीतियां कभी कामयाब नहीं होतीं।

आज जब पूरी दुनिया एक नए संकट के मोड़ पर खड़ी है, हिंदुस्तान को अपने ऐतिहासिक मूल्य और नैतिक ज़िम्मेदारी को पहचानते हुए खुलकर इंसाफ और मानवाधिकारों के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। हिंदुस्तान को इज़राइल की ईरान और अन्य पश्चिम एशियाई देशों पर की गई आक्रामक कार्रवाई की सख्त और सार्वजनिक रूप से निंदा करनी चाहिए।

दुर्भाग्य से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदुस्तान अपनी अंतरराष्ट्रीय भूमिका और नैतिक नेतृत्व से पीछे हटता नजर आ रहा है। ‘विश्वगुरु’ कहलाने की चाह रखने वाली सरकार आज चुप है, जबकि उसे दुनिया के अन्याय के खिलाफ सबसे बुलंद आवाज़ बननी चाहिए थी।