
आरएसएस की साम्प्रदायिक विरासत को सेवा का चोला पहनाकर छुपाया नहीं जा सकता
सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मोहम्मद शफ़ी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा स्वतंत्रता दिवस भाषण में दिए गए भ्रामक दावों की कड़ी निंदा की है। अपने संबोधन में मोदी ने आरएसएस को “दुनिया का सबसे बड़ा एनजीओ” बताया और उसकी “एक सदी की निष्ठा” की प्रशंसा की। यह दावे, भाजपा और उसकी वैचारिक मातृसंस्था के लिए राजनीतिक रूप से सुविधाजनक ज़रूर हैं, लेकिन तथ्यात्मक रूप से आधारहीन हैं और ऐतिहासिक साक्ष्यों तथा विभिन्न न्यायिक जांचों के बिल्कुल विपरीत खड़े हैं।
एसडीपीआई स्पष्ट रूप से अस्वीकार करता है कि आरएसएस किसी एनजीओ की श्रेणी में आता है। भारत में एनजीओ विधिक रूप से पंजीकृत संस्थाएँ होती हैं, जिन्हें 1860 के सोसाइटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट या समकक्ष क़ानूनों के तहत जवाबदेह होना पड़ता है, साथ ही वे ऑडिट और पारदर्शिता के नियमों से बंधी होती हैं। आरएसएस, जिसकी स्थापना 1925 में हिंदुत्व विचारधारा पर आधारित एक स्वयंसेवी अर्धसैनिक संगठन के रूप में हुई थी, का ऐसा कोई पंजीकरण नहीं है। इसके हज़ारों शाखाओं और सामाजिक परियोजनाओं के दावे न तो ऑडिट किए जाते हैं और न ही स्वतंत्र रूप से सत्यापित। इसे “सबसे बड़ा एनजीओ” बताना एक सोचा-समझा अतिशयोक्ति है, जिसका उद्देश्य सांप्रदायिक आंदोलन को नैतिक वैधता का आवरण देना है।
ऐतिहासिक अभिलेख यह उजागर करते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में आरएसएस अनुपस्थित रहा। ब्रिटिश अभिलेख स्पष्ट करते हैं कि आरएसएस ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन से जानबूझकर दूरी बनाई और अपने कार्यकर्ताओं को औपनिवेशिक शासन को उत्तेजित न करने का निर्देश दिया। जब गांधी और नेहरू जैसे नेता जेल में थे, तब आरएसएस ने हिंदू कैडर निर्माण को प्राथमिकता दी। विद्वानों ने दर्ज किया है कि एम.एस. गोलवलकर और अन्य हिंदुत्व नेताओं ने 1930 के दशक की यूरोपीय अधिनायकवादी व्यवस्थाओं की प्रशंसा की थी। इसी दौरान वी.डी. सावरकर ने द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश युद्ध प्रयासों का खुला समर्थन किया। संघर्ष के बजाय सहयोग को चुनने की यह विचारधारात्मक और रणनीतिक प्रवृत्ति उन लाखों बलिदानों के साथ विश्वासघात थी जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।
स्वतंत्रता के बाद का आरएसएस का इतिहास भी उतना ही चिंताजनक है। महात्मा गांधी की हत्या के बाद 1948 में इसे प्रतिबंधित किया गया था। 1975 में आपातकाल के दौरान और 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भी इस पर प्रतिबंध लगा। लिब्रहान आयोग ने साफ़ कहा कि आरएसएस, वीएचपी, बजरंग दल और वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने बाबरी विध्वंस का षड्यंत्र रचा। श्रीकृष्ण आयोग ने 1992–93 के मुंबई दंगों में संघ परिवार से जुड़े समूहों की भूमिका उजागर की, वहीं जस्टिस रेड्डी आयोग ने 1969 के अहमदाबाद दंगों में आरएसएस और जनसंघ की संलिप्तता दर्ज की। ये सारी रिपोर्टें मिलकर दिखाती हैं कि कैसे “सांस्कृतिक सेवा” के नाम पर बार-बार सांप्रदायिक लामबंदी की गई।
एसडीपीआई स्पष्ट करता है कि प्रधानमंत्री द्वारा आरएसएस की महिमा गान करना राष्ट्रनायकीय आचरण नहीं बल्कि विकृति है। विभाजनकारी लामबंदी को सच्ची सामाजिक सेवा के समान ठहराना स्वतंत्रता सेनानियों का अपमान है और न्याय, समानता और बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करता है।
एसडीपीआई लोकतांत्रिक शक्तियों, नागरिक समाज और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध नागरिकों से आह्वान करता है कि वे इन मिथ्या प्रस्तुतियों का सामना करें और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की समावेशी विरासत की रक्षा करें।
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